पारिवारिक प्रेम के ढोंग के लबादे में अपनेपन के दिखावे के दहलीज पर दरकता अपनत्व
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चेग्वेवारा रघुवंशी - गुड्डू (एडवोकेट) की कलम से : आज के परिवेश मे परिवार शब्द का शाब्दिक अर्थ सिकुडकर एक पत्नी व बच्चे तक ही सिमट कर रह गया है । आखिर क्यो ? इसके पीछे आकलन का नजरिया व जरिया हम नही खोजते है ! अब सवाल आता है, ये हुआ क्यो या हो रहा तो क्यो ! जिम्मेदार कौन है ? असल मे आज के परिवेश मे हम बुनियादी, दुनियावी, सामाजिकवादी सोचो को दरकिनार कर बस अपनेवादी तक ही सीमित है, उसमे अब बंटवारा सा भी हो गया है, बेटा पिता से दूर, बेटी माता से दूर, लगभग सभी अपनत्व के रिश्ते दिखावटीपन के मुखौटो मे अपने सानिध्य के साथ अब परिवार मे लोमडी सी प्रवृत्ति के हर परिजन अपने एकांकी वर्चस्व का विस्तार व प्रलयन चाहते है, इसके इतर हर कोई अपने परिवार को बचाना भी चाहता है, जो अब महज दिखावटीपन सा ही रह गया है, एक कसमकस के बीच उलझन के साथ उधेडबुन के साथ, एक दिखावटी प्रेम के साथ, बस धन लोलुपता मे लिप्त, धनार्जन के माध्यम की तलाश के ओत-प्रोत लूटने खसोटने मे लिप्त दिखावटी प्रेम के मुस्कान को अपने चेहरे पर लबादा का रुप दिये रह गया है परिवार व उसका हर सदस्य।
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